Conversion of religion for reservation:सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के दुरुपयोग पर लगाम लगाते हुए एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि केवल आरक्षण का लाभ उठाने के लिए धर्म परिवर्तन करना संविधान की भावना के खिलाफ है और इसे धोखाधड़ी माना जाएगा। मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक महिला की याचिका खारिज कर दी, जिसने एक उच्च पद प्राप्त करने के लिए अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र मांगा था। महिला ने दावा किया था कि उसने हिंदू धर्म अपना लिया है, लेकिन कोर्ट ने उसके दावे को खारिज करते हुए कहा कि वह ईसाई धर्म का पालन करती है और नियमित रूप से चर्च जाती है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि धर्म परिवर्तन का मुख्य उद्देश्य आरक्षण का लाभ लेना है, तो इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी लाभ के लिए धर्म परिवर्तन कर सकता है।सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाना है, न कि धर्म परिवर्तन को प्रोत्साहित करना। परिवर्तन ईमानदारी से होना चाहिए, न कि किसी स्वार्थ के लिए।
जस्टिस पंकज मिथल और आर महादेवन की पीठ ने इस मामले पर सुनवाई की। उन्होंने अपने फैसले में कहा, “इस मामले में प्रस्तुत साक्ष्य से यह स्पष्ट होता है कि अपीलकर्ता ईसाई धर्म का पालन करती हैं और नियमित रूप से चर्च जाती हैं।इसके बावजूद, वह खुद को हिंदू बताती हैं और रोजगार के लिए अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र की मांग करती हैं। उनका यह दोहरा दावा अस्वीकार्य है और वह बपतिस्मा लेने के बाद खुद को हिंदू के रूप में पहचान नहीं सकतीं।कोर्ट ने आगे कहा, “इसलिए सिर्फ आरक्षण का लाभ लेने के लिए एक ईसाई धर्मावलंबी को अनुसूचित जाति का सामाजिक दर्जा देना संविधान की मूल भावना के खिलाफ होगा और इसे धोखाधड़ी माना जाएगा।
यह फैसला आरक्षण के दुरुपयोग को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। यह सुनिश्चित करेगा कि आरक्षण का लाभ केवल उन लोगों को मिले जो वास्तव में इसके हकदार हैं।सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से धर्म परिवर्तन करने वाली एक ईसाई महिला की याचिका खारिज करते हुए कड़ी फटकार लगाई है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धर्म परिवर्तन केवल आस्था और विश्वास पर आधारित होना चाहिए, न कि किसी अन्य लाभ के कोर्ट ने महिला द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों और गवाहों के आधार पर पाया कि वह जन्म से ही ईसाई धर्म को मानती आ रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि महिला और उनका परिवार वास्तव में हिंदू धर्म अपनाना चाहते थे तो उन्हें इस संबंध में कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए थे, जैसे कि सार्वजनिक रूप से धर्म परिवर्तन की घोषणा करना।सुप्रीम कोर्ट ने महिला के उस दावे को भी खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि उसे तीन महीने की उम्र में बपतिस्मा दिया गया था। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बपतिस्मा, विवाह और चर्च में नियमित रूप से जाने के प्रमाण इस बात को दर्शाते हैं कि वह अभी भी ईसाई धर्म का पालन करती हैं।सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि धर्म परिवर्तन केवल तभी मान्य है जब वह आस्था और विश्वास पर आधारित हो। किसी अन्य उद्देश्य, विशेषकर आरक्षण का लाभ लेने के लिए किया गया धर्म परिवर्तन न केवल अस्वीकार्य है।