जन्म में राम, मरण में राम. वाह में राम, आह में राम. उत्साह में राम, स्याह में राम. राम को पंडों की परिधि से जन-जन की ज़ुबान पर पहुँचाने के लिए गोस्वामी तुलसीदास को बहुत कुछ सहना पड़ा था. वहीं बिहार की राजनीति में श्री रामचरितमानस को लेकर खूब बवाल हुआ . बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने तो श्री रामचरित मानस को लेकर कहा था कि इससे समाज में नफ़रत फैल रही है, इसे सायनाइड तक बता दिया. वहीं तुलसीदास और रामचरितमानस को घेरने के लिए सबसे ज़्यादा, ढोल, 'गंवार शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी' पंक्ति का हवाला दिया जाता है. इसका इस्तेमाल तो लोग गाँवों में स्त्रियों और दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए भी करते हैं. इस पंक्ति का लोग अपने-अपने हिसाब से स्वतंत्र रूप में इस्तेमाल करते हैं, लेकिन कोई भी संदर्भ नहीं बताता है. इस चौपाई की सटीक व्याख्या की है 'रामचंद्रारायण' ग्रंथ के रचयिता और रसायन शास्त्र के प्रोफेसर डॉ रामचंद्र सिंह ने. डॉ सिंह ने इसकी व्याख्या भी की है और संदर्भ भी बताया है.
वहीं रसायन विज्ञानी और साहित्य के मर्मज्ञ डॉ रामचंद्र सिंह का कहना है कि आज से 500 वर्ष पूर्व महान संत तुलसीदास जी ने एक कालजयी सद्ग्रंथ की रचना की जिसका नाम है "श्री रामचरितमानस". यह रचना भाषा (स्थानीय भाषाओं का सम्मिश्रण) में किया. भाषा में अवधि का बाहुल्य है. भोजपुरी के भी बहुत से शब्द हैं. इसी प्रकार भाषा में कई अन्य स्थानीय बोलियों का भी समावेश है. इसे सधूकड़ी भाषा भी कहा जाता है. संत सत्य ही बोलते हैं, या यूं कहें कि जो सत्य बोलते हैं, वह संत ही हैं. तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के सुंदरकांड में समुद्र के कथन को कहा है कि.. 'ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी'
इस चौपाई का अर्थ लगाने के लिए शूद्र और ताड़ना शब्द का उपयुक्त अर्थ जान लिया जाए तो अर्थ का अनर्थ करने से बचा जा सकता है. स्कंद पुराण में कहा गया है कि... जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते, वेदपाठात् भवेत् विप्र: ब्रह्म जानाति ब्राम्हण:।
उपयुक्त श्लोक स्कंद पुराण खंड 18, बुक 6, नगर कंद अध्याय 239 से उद्धृत है .इस श्लोक से स्पष्ट है कि जन्म से सभी शूद्र होते हैं और जब वे आचार, व्यवहार, चरित्र और विद्या जान जाते हैं या इसके जिज्ञासु हो जाते हैं तो वे द्विज हो जाते हैं, यानी दोबारा जन्म लेते हैं. वेद पढ़ने से द्विज का परिवर्तन विप्र में हो जाता है. समय-समय के संचित ज्ञान को वेद कहते हैं.विप्र जब वेदों को पढ़कर हृदय में धारण कर लेता है तो वह ब्रह्म का जानकार होकर ब्राम्हण बन जाता है. सनद रहे कि विद्वान,विद्या का जानकार होकर भी शील स्वभाव के अभाव में शूद्र ही रह जाता है या शील स्वभाव गंवा देने पर द्विज ब्राम्हण भी पुनः शूद्र गवांर की श्रेणी में गिर जाता है. ऐसा कहा जा सकता है कि शील स्वभाव गवां देने वाला ही गवांर कहलाता है. रावण इसका ज्वलंत उदाहरण है. अपने पिता विश्रवा ऋषि के सौजन्य से विप्र हो गया था,चतुर्वेदी था, लेकिन अपने नाना, मामा के उकसावे में आकर काम, क्रोध, मद और लोभ के वशीभूत होकर शूद्र की पराकाष्ठा, राक्षस बन गया. वर्तमान में भी कुछ चिकित्सा शास्त्री, यांत्रिक, आईएएस, आईपीएस इत्यादि उच्च शिक्षा प्राप्त करके भी लोभ, मद, क्रोध जैसे महादुर्गुणों के जाल में फंसकर शूद्र ही हो गए हैं. उनकी विद्या ही विष हो गई है. आमजन को उनसे लाभ कम, क्षति ही ज्यादा होती है. प्रसंगवश कहना है कि जो द्विज प्रत्येक कार्य आर्थिक मुनाफा की दृष्टि से करता है, वह वैश्य कहलाता है और जो शस्त्र धारण करके अन्याय के विरुद्ध लड़ता है, समाज और राष्ट्र की रक्षा करता है ,वह क्षत्रिय कहलाता है.
अब हम ताड़ना का अर्थ जान लें. ताड़ना का अर्थ भांप लेना,परख लेना, जांच लेना भी है. अवधि में ताड़ना का अर्थ धड़ल्ले से प्रयुक्त होता है और भोजपुरी में भी इसका प्रयोग होता है. शूद्र और ताड़ना का अर्थ जानकर, ढोल, गवार,शुद्र,पशु,नारी... का सही अर्थ लगाना आसान हो जाएगा. ढोल बजाने के पहले साजना पड़ता है, यानी ढोलक की कड़ी आगे पीछे करके ढोलक को चढ़ाना पड़ता है, ताकि उसे कर्णकटु नहीं कर्णप्रिय लय निकले. गवांर, अल्पज्ञ होकर भी अपने को विद्वान मानता है. उसे भांपकर ही उससे बात करनी चाहिए अन्यथा वह पापड़ को अति शुष्क रोटी कह कर आप का उपहास करने लगेगा. पशु को भी परखकर ही उसके नजदीक जाना चाहिए. हिंसक पशुओं को भी पहचाना पड़ता है और उसके नजदीक खाली हाथ कदापि नहीं जाना चाहिए नहीं तो घायल होना या जान गवानी भी पड़ सकती है. पालतू पशुओं के पास भी उसका स्वभाव जानकर ही उसके पास जाना चाहिए, नहीं तो पशु यदि मारने वाला,मारख्वाह होगा तो घायल कर सकता है. ग्रामीण क्षेत्र में पशु के पारखी लोग उन्हें देखकर ही समझ जाते हैं की बैल, मारख्वाह है,परुआ है,हल,गाड़ी खींचने वाला है या रोगी है. दुधारू पशु ,ज्यादा या कम दूध देने वाली है या करकट्टा है. नारियां बड़ी कोमल हृदय और भावुक होती हैं. उससे कोई ऐसी वाणी नहीं बोलनी चाहिए जो उसे व्यथित कर दे. वह भावुकता में वह नहीं जाए, इसलिए मेंड़ भी लगाना पड़ता है.
वहीं शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर श्री रामचरित मानस के चौपाई -अधम जाति मैं बिद्या पाए, भयउँ जथा अहि दूध पिआए - का जिक्र करते हुए कहा थाी नीच जाति के लोगों को शिक्षा हासिल करने का अधिकार नहीं था.''चंद्रशेखर ने कहा था, ''इसमें कहा गया है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करके ज़हरीले हो जाते हैं, जैसे कि साँप दूध पीने के बाद होता है.... ये हमारे देश और समाज को नफ़रत में बाँटती हैं.'' इस पर रसायन विज्ञानी के साथ ही काव्य रामचंद्रायण जैसे उच्चकोटि के साहित्य के रचनाकार डॉ रामचंद्र सिंह का कहना है कि शिक्षा मंत्री ने इसकी गलत व्याख्या की है. डॉ सिंह केअनुसार -फिर पूजिय विप्र सकल गुण हीना, पूजीय न शूद्र गुण, ज्ञान प्रवीणा उपयुक्त पद का अर्थ जानने के लिए गुण शब्द का अर्थ जानना आवश्यक है. गुण का अर्थ दोष, विकार भी है. जो विप्र रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण से भी ऊपर उठ जाता है, गुनातीत हो जाता है. वह परम तत्व ईश्वर को जानने के नजदीक हो जाता है और पूजनीय हो जाता है. जो विप्र पूर्णतः गुनातीत हो जाता है, वह ब्रह्म में ही मिलकर विलीन हो जाता है यानी मोक्ष को प्राप्त हो जाता है क्योंकि ब्रह्म ही पूर्णतः गुनातीत है. जो विप्र गुणाधीन हो जाता है वह ज्ञानवान होकर भी शुद्र हो जाता है क्योंकि ज्ञान की सार्थकता चरित्र में है. चरित्रहीन पूजनीय आदरणीय नहीं हो सकता इसलिए किसी भी पद का अर्थ जानने के लिए उसमें प्रयुक्त शब्दों का अर्थ जानना आवश्यक है अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो सकता है.
बहरहाल डॉ रामचंद्र सिंह के शब्दों में तुलसीदास के रामचरितमानस द्वारा जो लोग आजकल जातिप्रथा को लेकर विवाद खड़ा करते हैं, उनकी दृष्टि खंडित है, तो जो ग्रंथ को पढ़ रहा है वह ठीक अर्थ पर नहीं पहुंच पाएगा. रामचरितमानस प्रबंध काव्य है, महाकाव्य है. कोई विशिष्ट पात्र कोई बात कहता है तो उसको सही संदर्भ में देखना चाहिए. तुलसीदास ने रामचरितमानस को किसी विवाद के लिए नहीं लिखा था. रामचंद्रयण के रचयिता डॉ सिंह का स्पष्ट रुप से कहना है कि पहले वर्ण व्यवस्था और अर्थव्यवस्था एक समान थी. अब सवर्णों में भी आर्थिक पिछड़े हैं. सामाजिक विषमता और आर्थिक विषमता दो चीजें हैं. केवल वर्ण व्यवस्था ठीक कर दी जाए तो नहीं होगा, आर्थिक व्यवस्था सबकी ठीक होनी चाहिए, रोजगार सबको मिलना चाहिए. समाज की रचना शरीर जैसी है, मुखमंडल सुंदर रहे और पैर अगर रुग्ण रहे तो आपका सकल शरीर रुग्ण है. वह विकार पूरे शरीर को, सबको नष्ट कर देगा.यहां भी तुलसीदास की ‘सिया राममय सब जग जानी’ वाली बात है.तुलसीदास कभी संदर्भ च्युत नहीं होते.