PATNA : बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादूर...जैसी लोक परंपरा के गीतों के साथ अगर किसी को याद करते हैं तो उस योद्धा का नाम है रण बांकुरे वीर कुंवर सिंह। अपने जीवन काल में जिन्होंने आजादी की पहली गाथा लिखने की कोशिश कर अंग्रेजों के दांत खट्टे तक कर दिए थे। भोजपुर (आरा) जिले के जगदीशपुर रियासत के इस योद्धा ने जाति-धर्म से परे होकर अपने देश सेवा के लिए अपनी रियासत को ही दांव पर लगा दिया। इन पर शोधपरक काम करने वाले लेखक मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने इनके जीवन के अनछुए पहलुओं को दीगर करते हुए “वीर कुंवर सिंह की प्रेमकथा” पुस्तक की रचना कर डाली। इनसे इस संदर्भ में कई बातें हुई। जिसमें इन्होंने बताते हुए कहा कि इस पुस्तक में बाबू साहब के चरित्र चित्रण को भले ही प्रेम से लबरेज होकर देखी जाए। मगर इनके जीवन की सबसे खास बात यही थी, कि वो अपने लोगों से बहुत प्यार करते थे। कभी इन्होंने जाति और धर्म को अपने बीच दीवार नहीं बनने दिया। अपनी रियासत ही नहीं बल्कि देश की जनता से प्यार करने वाले बाबू कुंवर सिंह चाहते तो अपनी रियासत को बचा सकते थे। मगर उन्होंने कभी अपनी रियासत और अपने लोगों को लेकर कभी चिंता नहीं जतायी। बल्कि देश के लिए उम्र के आखिरी पड़ाव पर अपनी रियासत के लोगों के साथ कुछ सैनिक टुकड़ियों के साथ अंग्रेजों से लोहा लेने निकल पड़े। नौ माह तक एक लंबी लड़ाई लड़ने वाले इस योद्धा के पास न तो कोई हथियार था, न ही कोई माकूल संसाधन, थी तो बस हिम्मत और गुलामी से छुटाकारा पाने की ललकार।
इनके उपर करीने से काम करने वाले मुरली मनोहर श्रीवास्तव बताते हैं कि कुंवर सिंह ने बहुत ही कम उम्र में आरा के बाबू बाजार की दो नर्तकी बहनें धरमन और करमन के बहुत बड़े मुरीद थे। उनके नृत्य को देखने के लिए अक्सर जाया करते थे। उसी दरम्यान उनका दिल धरमन पर आ गया और वो धरमन के होकर रह गए। धरमन के कहने पर उन्होंने दो मस्जिदें बनवाई एक आरा में तो दूसरा जगदीशपुर में। इसके अलावे बाबू साहब की रणनीतिकारों में उनके साथ धरमन बीबी और उनका 12 साल का पोता रिपुभंजन सिंह हुआ करता था। आरा से युद्ध की हुंकार भरने वाले इस योद्धा ने अपने उम्र के आखिरी पड़ाव पर ऐसी रार मचायी की देश में अंग्रेजों के बीच दहशत का माहौल बन गया। इस योद्धा के साथ एक जो सबसे बड़ी बात है वो ये कि बाबू साहब बिना थके हारे 9 माह तक लगातार युद्ध लड़ते रहे। जिस इलाके में गए उस रियासत के राजाओं को सहयोग किया और उनका सहयोग लिया भी, जिसमें झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, नाना साहेब जैसे कई बड़े राजाओं के साथ होकर अंग्रेजों से युद्ध लड़ते हुए आग बढ़ते रहे। कुछ सैनिकों के साथ युद्ध लड़ने वाला रण बांकुरा की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि गुरिल्ला युद्ध ही इनका सबसे बड़ा हथियार था। जब अंग्रेज सेना देश के गद्दारों के साथ हमला करने के लिए आगे बढ़ती उस वक्त बाबू साहब के सैनिक पेड़ों पर चढ़कर छूप जाते थे और जैसे ही अंग्रेजी सेना आगे बढ़ती वो उन पर टूट पड़ते थे। जिससे अंग्रेजी सैनिक इनके शक्ति का अंदाजा नहीं लगा पाते थे और भाग खड़े होते थे, मारे जाते थे। दूर-दूर तक इनके नाम से अंग्रेजों में दहशत फैल गई। कई अंग्रेज ऑफिसर बदले गए, हजार सैनिक मारे गए। लेकिन इस योद्धा की हिम्मत उस वक्त तार तार हो गई। जब युद्ध लड़ते-लड़ते धरमन और उनका पोता बांदा में वीरगति को प्राप्त हुए।
कई शोधों के लिए चर्चित लेखक, पत्रकार मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने बताया कि हमने इस पुस्तक में उन पहलुओं को उजागर किया है, जो कल तक समाज में था। आपसी मिल्लत, जाति-धर्म का किसी तरह को कोई विभेद नहीं था। सभी साथ मिलकर लड़े तो बड़ी ताकत के भी हौसले पश्त कर दिए। बाबू साहब के उपर टिका टिप्पणी करने वालों पर मुरली कहते हैं की आज की तारीख में लोग जहां सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं, वहां बुढ़ापे में अपना सबकुछ न्योछावर कर देश की आजादी के लिए निकल पड़े। इनकी धरमन से मोहब्बत पर लेखक कहते हैं कि इस दुनिया में मोहब्बत करना कोई गुनाह नहीं है और वीर कुंवर सिंह-धरमन बीबी के मोहब्बत तो पूजने लायक है जो कभी अपने जीवन के आखिरी दौर तक धर्म को आड़े नहीं आने दिया और खुद को देश की आजादी में झोंक दिया। अरे, ये देश तो 1857 में ही आजाद हो जाता, लेकिन दुर्भाग्य उस जमाने में असंगठित होना, कई रियासतों में बंटे होना, स्वार्थ की राजनीति का फायदा उठाते हुए अंग्रेजों ने फूट डालो, राज करो की नीति को अपनाया नतीजा देश अपने आंगन में ही पराए के हाथों हारता रहा। जैसी कई पहलुओं को उजागर कर एक नई दिशा देने का काम किया है।
बाबू साहब जैसा दानी और आपसी मिल्लत वाले लोग आज के जमाने में विरले मिलेंगे। धरमन से मोहब्बत किया तो दोनों कसम खायी की हम गुलाम देश में कभी अपने बच्चे को जन्म नहीं देंगे। हालाँकि धरमन की मांग भले ही होली में अबीर से बाबू साहब ने भर दिए मगर उनके वो बोल....आप इसे निभा पाएंगे....अरे कहां आप राजा और कहां मैं एक नर्तकी इन दोनों का भला मेल कैसा....जैसी बातों का इनकी पुस्तक में जिक्र किया गया है। 23 अप्रैल 1858 को युद्ध के मैदान से लौट रहे थे। उसी क्रम में गंगा पार करते हुए अंग्रेजों ने उन पर तोप का गोला दाग दिया, जिसमें उनका हाथ जख्मी हो गया। उन्होंने तनिक भी देर नहीं किया और अपनी तलवार निकालकर अपने शरीर से हाथ को अलग कर गंगा मईया को सुपुर्द कर दिया। कटे हुए हाथ के बूते ही इन्होंने पुनः अंग्रेजों से अपनी रियासत पर फिर से फतह कर लिया। एक तरफ जीत की खुशी तो दूसरी तरफ 26 अप्रैल 1858 को बाबू साहब अपने जिंदगी की जंग हार गए। उसी समय से इनकी वीरगाथा को 26 अप्रैल को विजयोत्सव के रुप में मनाया जाने लगा। सबसे बड़ी बात ये है कि इस पुस्तक के प्रकाशन से पूर्व ही कई बड़े फिल्म निर्माता बाबू साहब की स्टोरी पर फिल्म बनाने के लिए संपर्क करने लगे हैं। इस पुस्तक में और भी कई खास बातें हैं, जो राजपूत राजा के साथ उनकी ईमानदारी और लोगों के बीच अपनी सहभागिता को प्रेम पूर्वक निभाने जैसी बातों को भी उद्धृत किया है। कल का इतिहास आज के लिए किसी मार्गदर्शन से कम साबित नहीं होगा। ऐसे योद्धा की कहानी आज के समाज के लिए काफी जरुरी है, क्योंकि आज जहां नफरत के बीज बोए जा रहे हैं, उस दौर में बाबू साहब की कहानी किसी प्रेरणा से कम नहीं है।
(लेखकः वीर कुंवर सिंह की प्रेमकथा पुस्तक लिख चुके हैं)