बेतिया विधानसभा: कभी कांग्रेस का गढ़, अब बीजेपी की पकड़ – रेणु देवी का राजनीतिक वर्चस्व बरकरार

बिहार की राजनीति में पश्चिम चंपारण जिले की बेतिया विधानसभा सीट (निर्वाचन क्षेत्र संख्या 08) एक दिलचस्प सफर तय कर चुकी है। कभी कांग्रेस का गढ़ रही यह सीट अब भारतीय जनता पार्टी की मजबूत बुनियाद बन चुकी है। हालांकि 2015 में कांग्रेस ने एक बार फिर वापसी की थी, लेकिन वह महागठबंधन की लहर में हुई एक अस्थायी सफलता साबित हुई। 1951 में हुए पहले चुनाव में कांग्रेस के प्रजापति मिश्रा ने जीत हासिल की थी और लंबे समय तक कांग्रेस ने यहां पर राज किया। लेकिन 1990 में पहली बार भाजपा के मदन प्रसाद जायसवाल की जीत के साथ यहां सियासी धारा बदली। 1995 में यह सीट जनता दल के खाते में गई और फिर साल 2000 से भाजपा की रेणु देवी ने इस सीट को चार बार अपने नाम किया। 2015 में जब नीतीश कुमार और लालू यादव के महागठबंधन ने राज्य में लहर बनाई, तब कांग्रेस के मदन मोहन तिवारी ने भाजपा की मजबूत दावेदार रेणु देवी को 2,320 वोट से हराकर ऐतिहासिक जीत दर्ज की। लेकिन यह जीत स्थायी नहीं रही। 2020 में रेणु देवी ने फिर से जीत हासिल कर भाजपा के वर्चस्व को बहाल किया।
चुनाव परिणामों पर एक नजर
2020: रेणु देवी (भाजपा) – 84,496 वोट (52.83%), मदन मोहन तिवारी (कांग्रेस) – 66,417 वोट (41.53%) | कुल वोटिंग – 56.26%
2015: मदन मोहन तिवारी (कांग्रेस) – 66,786 वोट (45.26%), रेणु देवी (भाजपा) – 64,466 वोट (43.69%) | कुल वोटिंग – 59.35%
2010: रेणु देवी (भाजपा) – 42,010 वोट (39.57%), अनिल कुमार झा (निर्दलीय) – 13,221 वोट (12.45%) | कुल वोटिंग – 55.25%
बेतिया विधानसभा सीट पर मुस्लिम मतदाता बड़ी भूमिका निभाते हैं। यहां मुस्लिम वोटरों की संख्या करीब 24.6% है, जबकि अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी लगभग 11.69% है। यादव, पासवान और रविदास समुदाय के वोट भी निर्णायक भूमिका में रहते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, इस क्षेत्र में 64% ग्रामीण और 36% शहरी मतदाता हैं, जो राजनीतिक मुद्दों और प्राथमिकताओं को प्रभावित करते हैं। 2020 के चुनावों में बाढ़, अतिक्रमण और जलजमाव जैसे स्थानीय मुद्दे सबसे प्रमुख रहे। शहरी क्षेत्रों में आधारभूत सुविधाओं की कमी और ग्रामीण क्षेत्रों में सिंचाई, सड़क और स्वास्थ्य सेवाएं चुनावी चर्चाओं का हिस्सा बनी रहीं।
बेतिया विधानसभा सीट का इतिहास बताता है कि यहां की राजनीति में बदलाव संभव है, लेकिन उसके लिए गठबंधन की लहर, मजबूत स्थानीय उम्मीदवार और प्रभावी चुनावी रणनीति अनिवार्य है। भाजपा ने यहां लंबे समय तक अपनी पकड़ बनाए रखी है, लेकिन 2015 की तरह कोई राजनीतिक भूचाल आने पर तस्वीर बदल सकती है।