खूनी राजनीति का रंगमहल मोकामा, जहां दुर्दांत ही बनता रहा सियासत का सरदार,गुंडई की कोख से पैदा कुख्यातों के सियासी सफर को टटोलती एक रिपोर्ट..सोनू मोनू का क्या होगा...
Bihar Politics:मोकामा कभी दाल का कटोरा के तौर पर प्रसिद्ध था पर पिछले 3 दशक से हालत इस कदर बदले की अब चर्चाओं में सिर्फ दबंगों और सियासत के बाहुबलियों के लिए ही चर्चित था और है।

N4N डेस्क। बिहार की सियासत में 90 के दशक से ही बाहुबलियों का जोर रहा है। लेकिन कभी दाल का कटोरा के तौर पर प्रसिद्ध रहे मोकामा में 80 के दशक में ही इलाकाई दबंगों के राजनीति में दमदार भूमिका निभाने की शुरुआत हो गयी थी। मोकामा विधानसभा की सियासत पर पिछले 30 सालों से बाहुबलियों का ही कब्जा रहा है। यह जोर आज भी 2025 में भी दिन—दूनी रात चौगुनी तरक्की के साथ बदस्तूर कायम है। मोकामा के बाहुबलियों के कारनामों की छाप वर्तमान में भी सियासी पन्नों पर दर्ज़ मिल ही जाता हैं। यहां कुछ ऐसे बाहुबली विधायक हुए हैं जो हाथ जोड़कर दहशतगर्दी का वो आलम रच गए जिसकी विरासत मौजूदा सियासत पर भी हावी है। आइए कुछ ऐसे किस्से बयां करते हैं जो आज भी लोगों की ज़ुबां पर चढ़े हुए हैं।
बैलेट को मिला बुलेट का साथ
उस दौर में जब देश में चुनाव बैलेट पेपर से होता था। सन 1980 विधानसभा चुनाव में श्याम सुंदर सिंह धीरज कांग्रेस के सीताराम केसरी गुट से चुनाव लड़ रहे थे। यह वही दौर था जब राजनेता अपनी जीत के लिए बाहुबल का सहारा लेने लगे थे। सूबे में बूथ कैप्चरिंग अपने चरम पर था। तब पहली बार श्याम सुंदर सिंह धीरज ने उस दौर में अपराध जगत के बड़े नामो में शुमार हो चुके और पूरे मोकामा एरिया में अपनी दंबगई के वजह से बड़े सरकार के तौर पर विख्यात हो चुके दिलीप सिंह की मदद ली। उन्होंने खुलकर सपोर्ट किया और धीरज चुनाव जीत गए।सियासत के जानकारों की मानें तो ये औपचारिक तौर पर पहली बार था जब मोकामा की सियासत में बाहुबलियों की खुलेआम एंट्री हुई थी।
मोकामा पर रहा बाहुबलियों का कब्ज़ा
लेकिन श्याम सुंदर सिंह धीरज को यह गलती बहुत भारी पड़ गई और राजनीती में अपराधिक छवि के दबंग को तवज्जों देने की उनकी कवायद उनको ही बड़ी भारी पड़ गई। कभी सहयोगी रहे पहलवान ने ही प्रतिद्वंद्वी बनकर 1990 के विधानसभा चुनाव के रण में श्याम सुंदर सिंह को 20 हजार से ज्यादा वोटों से चारो खाने चित्त करने में सफल हो गया। यही नही लगातार दूसरी बार भी यानि 1995 के चुनाव में भी धीरज को पछाड़ दिया। तब लालू यादव ने इनाम के तौर पर दिलीप सिंह को मंत्री बना दिया। नतीजतन अबतक अपनों के बीच ही बड़े सरकार के तौर पर संबोधित होने वाले दिलीप सिंह पुरे मोकामा ही नहीं अख़बारों में भी इसी उपनाम से प्रसिद्ध होने लगे।
वही,श्याम सुदर धीरज ने ही दिलीप सिंह को पाला-पोसा था और दिलीप ने ही श्याम सुंदर को चुनावी मात दी। इससे श्याम सुंदर सिंह धीरज पूरी तरह बौखला गए। फिर उनकी नज़र दिलीप गैंग के सूरजभान सिंह पर पड़ी, जिसे जुर्म की दुनिया पर राज करने का फितूर जुनून की हद तक सिर पर सवार था। दिलीप सिंह के मंत्री बन जाने के बाद वह सियासत में व्यस्त हुए इधर सूरजभान सिंह का सूरज उदय हुआ। तब धीरज बेहद करीने से बिसात बिछाकर दिलीप सिंह के उस दौर के सबसे चर्चित शागिर्द रहे सूरजभान सिंह को उनसे अलग करने में सफल रहे। फिर 1998 में अपनी गिरफ्तारी के बाद सूरजभान ने भी अपराध जगत के सुरमा से माननीय बनने की कवायद के तहत जेल से वर्ष 2000 में मोकामा से विधानसभा का चुनाव लड़ने का पर्चा दाखिल कर दिया। उस वक्त तक उनके ऊपर बिहार और यूपी में कुल 26 आपराधिक मामले दर्ज हो चुके थे। अपने पहले चुनाव में ही अपने गुरु दिलीप सिंह को 70 हजार वोट से हराकर मोकामा को दाल नहीं दबंग ही पसंद है की चर्चा को मजबूती प्रदान कर दी। लेकिन अपनी बढती राजनितिक महत्त्वकांक्षा के तहत विधानसभा का चुनाव जीतने के बाद 2004 में वह रामविलास पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी के टिकट से बलिया (बिहार) के सांसद बन गए।
नदवां से मोकामा तक
कभी अपने शागिर्द रहे सूरजभान से मोकामा में ही बुरी तरह विधानसभा चुनाव हारने के बाद दिलीप सिंह का प्रभाव कम होने लगा। 2003 में विधान परिषद चुने गए,लेकिन अक्टूबर 2006 में पटना में हार्ट अटैक से निधन हो गया। “बड़े सरकार” दिलीप सिंह के अचानक परलोक सिधारने के बाद अन्नत सिंह का “छोटे सरकार” बनने का सफ़र शुरू हुई। अनंत सिंह ने कई बार खुद ही स्वीकार किया है की वो साधु बनने खातिर घर छोड़कर हरिद्वार चले गए थे। लेकिन इसी बीच उनके सबसे बड़े भाई बिरंची सिंह की हत्या हो गई और यह सुनते ही सबकुछ छोड़कर गाव लौट आए। घर लौटे अन्नत के सर पर खून सवार था और अपने भाई के हत्यारों को ढूंढ कर मारा और भाई का बदला लिया। इसके बाद तो अनंत सिंह का जरायम की दुनिया में सिक्का चलने लगा और अपराध जगत में बहुत तेजी से आगे बढ़ने लगे तो दुश्मनों की तादाद भी बढ़ने लगी। इसी क्रम में इनकी दुश्मनी अपने ही रिश्तेदार विवेका पहलवान से हो गई।नतीजतन दोनों के बीच वर्षों तक खूनी संघर्ष चला। अन्नत सिंह पर जानलेवा हमला भी हुआ लेकिन तमाम झंझावतों को झेलते हुए आखिरकार वर्ष 2004 लोकसभा चुनाव का वक्त आया और बाहुबली अन्नत की सियासत में एंट्री की पटकथा लिख दी गई।
जरायम से सियासत तक
वर्तमान मुख्यमंत्री उस दौर में बाढ़ लोकसभा सीट से अपनी किस्मत आजमा रहे थे और उनकी जीत सुनिश्चित करने खातिर उनके सिपहसालारों ने बाहुबली बन चुके अनंत सिंह की मदद ली। नतीजा फलदायक रहा और अन्नत को इसका फायदा वर्ष 2005 के विधानसभा चुनाव में मिला। JDU ने अनंत सिंह को मोकामा से पार्टी का सिम्बल थमा दिया और तब अपने दिवंगत बड़े भाई की इस सीट पर उन्होंने सूरजभान समर्थित लोजपा पार्टी के उम्मीदवार नलिनी रंजन शर्मा उर्फ ललन सिंह को हराकर फिर से एक बार अपने परिवार का सियासी वर्चस्व स्थापित कर दिया। इसके बाद से आज तक मोकामा सीट पर इनका कब्जा बरकरार है।
मोकामा का ‘अनंत किला’
अनंत सिंह तब से अबतक मोकामा से लगातार चुनाव जीतते रहे। उन्होंने जब जिस दल का हाथ पकड़ा, उसे जीत नसीब हुई। राजद और जदयू के साथ हुए तो भी और निर्दलीय मैदान में उतरे तो भी जीत दर्ज की है। साथ ही अनंत सिंह जैसे-जैसे सियासी मजबूती हासिल करते गए वैसे वैसे उनके जुर्मों की फाइल भी मोटी होती गई। 2020 विधानसभा चुनाव के दायर हलफनामे के मुताबिक, उन पर हत्या की कोशिश के 11 और जान से मारने की धमकी के 9 केस सहित कुल 38 FIR दर्ज हैं। कुछ मामलों में उनकी रिहाई भी हुई है। जिसमे पुलिस द्वारा अनंत सिंह के घर पर छापा मारकर एक-47 राइफल और बुलेट प्रूफ जैकेट बरामद करने का अतिचर्चित मामला भी है। इस मामले में एक अदालत ने अनंत सिंह को 10 साल की सजा सुनाई थी। अनंत सिंह को जब सजा सुनाई गई तो वे मोकामा से विधायक थे।लेकिन सजायाफ्ता होने के बाद उनकी सदस्यता चली गई। मोकामा सीट पर 2022 में हुए उपचुनाव में अनंत सिंह की पत्नी नीलम देवी विधायक चुनी गई थीं। लेकिन मोकामा का ‘अनंत किला’ सियासी गलियारे में मजबूती से खड़ा है।
अब सोनू-मोनू की महत्वाकांक्षा
सज़ावार होने के बाद निचली अदालत के फैसले को अनंत सिंह ने पटना हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। अगस्त 2024 में हाई कोर्ट ने उन्हें इस मामले से बरी कर दिया। इसके बाद वो करीब छह साल बाद पटना की बेउर जेल से रिहा हुए।हाई कोर्ट से बरी होने के बाद अनंत सिंह इसी साल यानी 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव में मोकामा से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे है।लेकिन इस बीच मोकामा के नौरंगा-जलालपुर गांव में हुई गोलीबारी की घटना ने उनके चुनाव लड़ने की उम्मीदों को तगड़ा झटका लगा है। दर्ज FIR में नामजद होने के बाद पूर्व विधायक ने बाढ़ कोर्ट में आत्मसमर्पण कर दिया है। कोर्ट ने 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में उन्हें बेऊर जेल भेज दिया है। इसी बीच में हुई खूनी भिड़ंत में ताबड़तोड फायरिंग की घटना ने सियासी जोर पकड़ लिया है। विपक्ष लगातार सरकार पर हमलावर है। वहीं दूसरी तरफ क्योंकि अभी यह तय नहीं है कि अनंत सिंह की जेल से रिहाई कब होगी।
वही, दूसरी तरफ बाहुबली अनंत सिंह से सरेआम दुश्मनी मोल लेने वाले सोनू-मोनू की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है। ये दोनों भी मोकामा विधानसभा क्षेत्र के ही निवासी है और इलाके के नामवर दबंग और बाहुबलियों में शुमार किए जाते है। उनकी मां हेमजा ग्राम पंचायत की मुखिया हैं। लेकिन सोनू-मोनू की मंजिल बिहार विधानसभा है। उनके इस रास्ते में अनंत सिंह सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए कभी छोटे सरकार के ही शागिर्द रहे ये दोनों लड़के अनंत सिंह को ललकार रहे हैं। यानी फिर एक बार मोकामा के चुनावी महाभारत में दबंगों के ही सियासी टक्कर की पटकथा लिखी जा रही है। यानी जीते कोई भी मोकामा की पसंद दबंग ही रहेगा।
रिपोर्ट कुलदीप भारद्वाज