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"फूट डालो,राज करो"..90 साल पहले वाली सियासत को सत्ता हासिल करने का बनाया जुगाड़,क्या पिछले 33 सालों में लालू नीतीश का सामाजिक न्याय सिर्फ दिखावा था? पढ़िए इनसाइड स्टोरी

"फूट डालो,राज करो"..90 साल पहले वाली सियासत को सत्ता हासिल करने का बनाया जुगाड़,क्या पिछले 33 सालों में लालू नीतीश का सामाजिक न्याय सिर्फ दिखावा था? पढ़िए इनसाइड स्टोरी

डेस्क- लोकसभा चुनाव 2024 का चुनाव की घड़ी जैसे जैसे नजदीक आ रही है वैसे वैसे राजनीतिक दल अपने तरकश से नए नए तीर निकाल रहे हैं. इसी परिपेक्ष्य में जातीय जनगणना का सवाल एक बार फिर राजनीतिक गलियारे में घूमने लगा है. विपक्ष में शामिल कई दलों के साथ-साथ एनडीए खेमे से भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठ रही है. ये सियासत की एक ऐसी नब्ज़ है जिसके बिना राजनीति चल नहीं सकती. फिर ऐसा क्या है कि देश में 90 साल पुरानी जातीय जनगणना ही चली आ रही है.बहुमत हमेशा लोकमत हो यह जरूरी नहीं है, लोकमत का अर्थ बहुमत या फिर सर्वसम्मति कतई नहीं होता बल्कि लोकमत का तात्पर्य बिना किसी भेदभाव के संपूर्ण समाज का हित होता है, बिहार के राजनीतिक हालात को देखें तो जेडीयू को आरजेडी से पिछड़ने का डर सता रहा है क्योंकि पिछड़ों की सियासत करनेवाली आरजेडी इस मसले पर शुरू से मुखर है. नीतीश ने भले ही अति पिछड़ों के बीच पकड़ बनाने की कोशिश की लेकिन वहां भी बीजेपी की नजर है. पिछले 2 दशकों से सियासत में ओबीसी का दबदबा बढ़ा है. बिहार में ओबीसी के बीच आरजेडी का प्रभाव अच्छा खासा रहा है, नीतीश के लिए जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी करना राजनीतिक मजबूरी भी है.

बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने इसकी शुरुआत कर दी है और देश का कोई भी राजनीतिक दल  इसका विरोध करने का हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. देश में सबसे लंबे समय तक राज करने वाली पार्टी कांग्रेस है जिसके नेता राहुल गांधी पूरे देश में जातीय जनगणना करवाने की मांग करते हुए कह रहे हैं कि जिसकी जितनी आबादी है, उसे उतना हक मिलना चाहिए.वहीं बिहार में 1990 के बाद पिछले 33 सालों से बारी-बारी से राज करने वाले नीतीश कुमार और लालू यादव हैं जो मुसलमानों और पिछड़ों का कल्याण करने के बाद अब अति पिछड़ों के कल्याण की बात कर रहे हैं.

स्थिति है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री अभिषेक मनु सिंघवी ने जातीय जनगणना के खतरे को भांपते हुए सोशल सोइट एक्स पर लिखा कि, अवसर की समानता कभी भी परिणामों की समानता के समान नहीं होती है. जितनी आबादी उतना हक का समर्थन करने वाले लोगों को पहले इसके परिणामों को पूरी तरह से समझना होगा. इसकी परिणति बहुसंख्यकवाद में होगी. लेकिन आनन-फानन में कांग्रेस ने न केवल अपने वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी के बयान को उनका निजी विचार बताकर किनारा कर लिया बल्कि हालात ऐसे बना दिए गए कि सिंघवी को अपने पोस्ट को डिलीट तक करना पड़ गया.

बिहार में जातियों की राजनीति आजादी के बाद से ही देखी जा रही है. याद कीजिए मंडल कमिशन के बाद का दौर, अस्सी के दशक में सूबे की हवा सदाकत आश्रम से होकर बहती थी.समय पलटा मंडल के दौर में हवा ने रुख बदला और बिहार की सियासी हवा लालू के इर्द गिर्द घुमने लगी.बीसवीं सदी में फिर समय ने करवट बदला और तब से राजनीति नीतीश के इर्द गिर्द हीं घूम रही है. सत्ता में साझेदारी चाहे राजद की हो या भाजपा की , प्रमुख नीतीश हीं बने रहे.इंडी गठबंधन के बनने के बाद कुछ समय के लिए लगा कि हाव ने रुख बदल दिया है और लालू के घर से होकर बहने लगी लेकिन नीतीश ने जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी कर इसे मिथक साबित कर दिया. रिपोट को सार्वजनिक कर नीतीश ने अपने विरोधियों के साथ साझेदारों को भी चारो खाने चित्त कर दिया. अब बिहार में ओबीसी को अपनी ओर करने में हर दल लगा है. सियासी धुरंधर अपने अपने दाव अजमा रहे हैं. अब कौन किस पर भारी पड़ेगा ये तो लोकसभा चुनाव के बाद हीं पता चलेगा लेकिन कोई दल इस खेल में पीछे नहीं रहना चाहता है. 

राजनीतिक पंडित सवाल खड़ा कर रहे हैं कि करीब साढ़े तीन दसक से बिहार की सता पर लालू और नीतीश का राज रहा है अगर पिछड़ों का विकास नहीं हुआ तो इसके लिए जिम्मेवार कौन है. लालू ने सामाजिक लड़ाई लड़ने का दावा किया तो नीतीश पिछड़ों के हमदर्द बनने का दावा करते नहीं थकते. सवाल है कि शासन में भी तो वहीं रहे, फिर इसके लिए जवाबदेह कौन होगा. राजनीतीक पंड़ितो के अनुसार ये पॉलिटिकल शगूफा है जिसके सहारे लालू और नीतीश वैतरणी पार करना चाहते हैं.

बता दे, देश में आखिरी बार जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी. उस समय पाकिस्तान और बांग्लादेश भी भारत का हिस्सा थे. तब देश आबादी 30 करोड़ के करीब थी  अब तक उसी आधार पर यह अनुमान लगाया जाता रहा है कि देश में किस जाति के कितने लोग हैं. 1951 में जातीय जनगणना के प्रस्ताव को तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने यह कहकर खारिज कर दिया था कि इससे देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है. आजाद भारत में 1951 से 2011 तक की हर जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के आंकड़े ही जारी किए गए. मंडल आयोग ने भी 1931 के आंकड़ों पर यही अनुमान लगाया कि ओबीसी आबादी 52% है. आज भी उसी आधार पर देश में आरक्षण की व्यवस्था  है. जिसके तहत ओबीसी को 27 फीसदी , अनुसूचित जाति को 15 फीसदी तो अनुसूचित जनजाति को 7.5 फ़ीसदी आरक्षण मिलता है.

बहरहाल लौहपुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल की सोच को उनका दल हीं आज नकार रहा है तो आगे देखना होगा नक्कारखाने में किसकी तूती बोलती है

     


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