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बिकने जा रही है भारत में जेनरिक दवाओं का रास्ता खोलनेवाली कंपनी, गांधी,नेहरू और बोस भी थे मुरीद, अंग्रेज भी खाते थे खौफ

बिकने जा रही है भारत में जेनरिक दवाओं का रास्ता खोलनेवाली कंपनी, गांधी,नेहरू और बोस भी थे मुरीद, अंग्रेज भी खाते थे खौफ

DESK : भारत में दवा कंपनियों में सबसे बड़े नामों में एक नाम सिप्ला CIPLA (The Chemical Industrial And Pharmaceutical Laboratories) का भी शामिल है। 88 साल पुरानी इस कंपनी को लेकर बड़ी खबर सामने आ रही है। बताया जा रहा है कि सिप्ला कंपनी जल्द ही बिकने जा रही है और इसे खरीदने की रेस में दुनिया की सबसे बड़ी प्राइवेट इक्विटी फर्मों में से एक ब्लैकस्टोन (Blackstone) सबसे आगे है। वर्तमान में कंपनी के फाउंडर ख्वाजा हमीद की फैमिली का अधिकार है, लेकिन अब वह अपनी पूरी 33.47 फीसदी हिस्सेदारी बेचने जा रहे हैं।  

86 देशों में फैला दवा का कारोबार
 कारोबार की बात करें तो सिप्ला, फिलहाल भारत की तीसरी सबसे बड़ी दवा बनाने वाली कंपनी है। सन फार्मा और डॉक्टर रेड्डीज के बाद सिप्ला का नाम रैंकिंग लिस्ट में आता है। कंपनी का मार्केट कैपिटलाइजेशन 9,979 मिलियन डॉलर है। दुनिया में 47 जगहों पर इसके मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स मौजूद हैं और इस भारतीय कंपनी में बनाई गईं दवाओं को करीब 86 देशों में सप्लाई किया जाता है।

विदेशी हो जाएगी स्वदेशी सिप्ला
 भारतीय फार्मा इंडस्ट्री को फर्श से अर्श पर पहुंचाने वाली कंपनी को फिलहाल, युसुफ हमीद की भतीजी समीना (एग्जिक्यूटिव वाइस चेयरपर्शन सिप्ला) संभाल रही हैं और हमीद फैमिली अब इसमें अपनी पूरी 33.47 पीसदी हिस्सेदारी बेचने के लिए तैयार हैं।

हिस्सेदारी बेचने की एक बड़ी वजह
 सिप्ला को बेचने के कारणों की बात करें तो एक बड़ी वजह उत्तराधिकारी की कमी उभरकर आ रही है. दरअसल, Cipla सिप्ला के Succession Plans पर गौर करें तो ख्वाजा अब्दुल हमीद ने कंपनी की बागडोर युसुफ हमीद को सौंपी थी, वहीं अब जबकि गैर-कार्यकारी अध्यक्ष YK Hamied 80 साल के हो चुके हैं, तो बीते 2015 में उन्हें कंपनी की बागडोर अपनी भतीजी समीना हामिद (Samina Hamied) को बोर्ड में शामिल किया गया था.

भारत में 1935 में हुई थी शुरुआत
 आंखों में एक बड़ा सपना लेकर केमिस्ट से कारोबारी बने ख्वाजा हमीद ने भारत को आजादी मिलने से पहले साल 1935 में देश के लोगों को सस्ती और जीवनरक्षक दवाओं की पर्याप्त आपूर्ति करने के उद्देश्य से सिप्ला (Cipla) की शुरुआत की थी। खास बात ये कि उन्होंने जर्मनी में अपनी केमिस्ट की नौकरी छोड़कर ऐसे समय में भारत में पहली दवा निर्माता कंपनी की नींव रखी थी, जबकि छोटी से बड़ी बीमारी तक के इलाज के लिए आने वाली दवाएं विदेशी कंपनियों से आती थीं। इसके साथ ही पश्चिमी देशों की दवा कंपनियां भारत को इतनी अहमियत भी नहीं देती थीं, जिससे कई जरूरी दवाएं जरूरतमंदों को नहीं मिल पाती थीं।

अपनी शुरुआत के बाद से ही इसने फार्मा सेक्टर में धमाल मचा दिया। 60 के दशक में कंपनी की इनकम में बड़ा उछाल आना शुरू हो गया था और 1968 में इसकी आय 1 करोड़ रुपये के पार पहुंच गई. इसके बाद कंपनी ने फार्मा सेक्टर में एक के बाद एक मुकाम बनाए। कंपनी का सस्ती दवाएं मुहैया कराने का फॉर्मूला कम आया और देश में लगभग हर मर्ज की किफायती दवा इसके जरिए मिलने लगी

इसके बाद कंपनी ने फार्मा सेक्टर में एक के बाद एक मुकाम बनाए। 90 के दशक में 1991 तक कंपनी की बिजनेस 100 करोड़ रुपये को पार कर गया था। सबसे खास बात ये कि सिप्ला की शुरुआत से पहले भारत पश्चिमी कंपनियों पर आश्रित था, वही देश अब तक तमाम देशों को अपनी दवाइंया निर्यात करने लगा था।

सस्ती दवाओं का फॉर्मूला आया काम
 मार्केट में पहले से दबदबा बनाए दूसरी बड़ी फार्मा कंपनियों को कड़ी टक्कर देते हुए सिप्ला दुनिया में अपना वर्चस्व कायम करती जा रही थी. कंपनी का सस्ती दवाएं मुहैया कराने का फॉर्मूला कम आया और देश में लगभग हर मर्ज की किफायती दवा इसके जरिए मिलने लगी. बड़ी आबादी वाले देश में दवाओं की किल्लत दूर करने के साथ ही सिप्ला ने विदेशों में भी एक बड़ा मार्केट बना लिया और इसकी इनकम का करीब 60 फीसदी हिस्सा विदेशी बाजारों से आता था। देखते ही देखते ये भारतीय फार्मा कंपनी रेसपिरेटरी और HIV दवाओं की मैन्यूफैक्चरिंग में टॉप फर्म बन गई।

भारत में जेनरिक दवाओं के लिए खोला था रास्ता
 कमाई के बजाए कम दाम में हर वर्ग को दवाएं उपलब्ध कराने के ख्वाजा हमीद के विजन की सराहना न केवल देश में, बल्कि विदेशों में भी होने लगी। जब देश अंग्रेजों का गुलाम था, तब विदेशी कंपनियों को मात देने वाली भारतीय दवा कंपनी सिप्ला के बढ़ते कदमों को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोसतक ने सराहा था। धीमे-धीमे भारत को ड्रग कैपिटल के तौर पर पहचाना जाने लगा। ऐसा हो भी क्यों न आखिर यही वो कंपनी थी, जिसने बड़ी जद्दोजहद के बाद आखिरकार भारत में जेनेरिक यानी सस्ती दवाओं का रास्ता खोला था


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