AURANGABAD : सनातन धर्म शास्त्रों में पित्तरों को मोक्ष दिलाने के लिए पितृपक्ष में पिंडदान किए जाने का धार्मिक विधान सदियों से चला आ रहा है। इसी धार्मिक विधान के तहत श्रद्धालु पित्तरों को मोक्ष दिलाने के लिए पुनपुन नदी में प्रथम पिंडदान किया करते हैं। पुनपुन नदी में पित्तरों को प्रथम पिंड देने के बाद ही श्रद्धालु मोक्षदायिनी अंतर्राष्ट्रीय धर्म नगरी गया जाकर श्राद्ध तर्पण का कर्मकांड विधि विधान से पूरा करते हैं।
इसी वजह से पुराणों में पुनपुन नदी को गया श्राद्ध का प्रवेश द्वार कहा गया है। यह भी कहा गया है कि पुनपुन नदी में पित्तरों को प्रथम पिंड दिए बिना गयाजी में पूरक विधान से कराया गया पितृ तर्पण अपूर्ण रह जाता है और पित्तरों को भी वह स्वीकार नही होता है। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि गया श्राद्ध करने के पहले हर हाल में पुनपुन में पित्तरों को प्रथम पिंडदान करना अनिवार्य है। यह अनिवार्यता भी सदियों से चली आ रही है।
बात त्रेतायुग की है, जब अयोध्या के राजकुमार श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास दे दिया गया था। श्रीराम के वनवास के दौरान ही पुत्र वियोग में राजा दशरथ की मृत्यु हो गई। इसकी सूचना श्रीराम को आकाशवाणी से मिली। पिता की मौत की सूचना के बाद वनवासी जीवन जी रहे श्रीराम ने अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता से इच्छा जाहिर किया कि उन्हें अपने पिता राजा दशरथ की आत्मा की शांति एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए ब्रह्माजी के आशीर्वाद से उत्पन्न हुई पुनपुन नदी में पिंडदान करना है। तब प्रभु श्रीराम ने पुनपुन नदी के तट पर आकर अपने पिता राजा दशरथ का सर्वप्रथम पिंडदान किया था।
इसके बाद दूसरा पिंडदान माता सीता ने गया में किया था। हालांकि सनातन धर्म में पिता को पुत्र के हाथों ही पिंडदान का विधान है। इसके बावजूद गया में सीता द्वारा बहु की हैसियत से अपने ससुर महाराज दशरथ के लिए पिंडदान किया जाना परिस्थितिजन्य रहा है, जिसकी चर्चा वाल्मिकी रामायण में है। आज जिस जगह पर भगवान श्रीराम ने पिंडदान किया था। उस जगह को पिंडदान करनेवाले पिंडदानी खोज रहे है।
औरंगाबाद से दीनानाथ मौआर की रिपोर्ट