बिहार में बन रहे हैं नए समीकरण! लालू का पारंपरिक वोट बैंक खिसकने से तेजस्वी का कूनबा परेशान, नीतीश के पटकनी के बाद क्या राजद के युवराज का सपना होगा सच?

पटना: लालू यादव ये सपना देख रहे थे कि नीतीश कुमार का साथ पाकर 2025 में अपने बेटे तेजस्वी यादव की बतौर मुख्यमंत्री ताजपोशी होती देखेंगे, मगर नीतीश ने तो विधानसभा दूर, लोकसभा चुनाव से ही पहले उनके पैरों तले जमीन खिसकाने का मन बना लिया। याद दिला दें, नीतीश ने एक तरह से तेजस्वी यादव को अपना उत्तराधिकारी घोषित करते हुए यह घोषणा की थी कि राजद नेता 2025 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन का नेतृत्व करेंगे। नीतीश की इस घोषणा के बाद जद(यू) में नाराजगी फैल गई जिसके कारण उपेन्द्र कुशवाहा जैसे उनके करीबी सहयोगी को पार्टी छोड़नी पड़ी।
वर्ष 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी ने शानदार प्रदर्शन किया था। सबसे बड़े दल के रूप में आरजेडी उभरा। तेजस्वी यादव ने पहली बार चुनाव की कमान संभाली थी। लालू तब जेल हिरासत में रांची के सरकारी अस्पताल रिम्स में इलाज के लिए भर्ती थे। तेजस्वी मैदान में उतरे और पहली बार में ही बड़ी कामयाबी हासिल कर ली। तब आरजेडी ने विधानसभा की 144 सीटों पर लड़ कर 75 जीत ली थीं।
2015 में शुरू हुई, जब महागठबंधन की बिहार में सरकार बनी। लेफ्ट पार्टियों और कांग्रेस के साथ आरजेडी ने 2015 में ही महागठबंधन बना लिया था। तब नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू भी महागठबंधन का ही हिस्सा थी। महागठबंधन ने 2015 में नीतीश के नेतृत्व में बनी सरकार में तेजस्वी यादव पहली बार डेप्युटी सीएम बने. तेजस्वी को 2020 के विधानसभा चुनाव में सदस्यों की संख्या के हिसाब से एनडीए से आठ-नौ सीटों की कमी के कारण सरकार बनाने से चूक गए।
तेजस्वी को बिहार का दूसरी बार डेप्युटी सीएम बनने का मौका तब मिला, जब नीतीश ने 2022 में उन्होंने नीतीश को पटा कर एनडीए से अलग करने में कामयाबी पा ली। उसके बाद वे 17 महीने तक नीतीश की सरकार में दूसरे ओहदे के मंत्री बने रहे।
नीतीश ने जब 2024 में तेजस्वी को झटका दे दिया तो उन्होंने समय का सदुपयोग किया। लोकसभा चुनाव के दौरान 200 से भी अधिक बिहार में चुनावी दौरे कर लिए। भीड़ भी उनकी सभाओं में खूब उमड़ी। आरजेडी के कोर वोटर में मुसलमान, यादव और कुशवाहा वोटों का सम्मिलित आंकड़ा 37 प्रतिशत है। मुकेश सहनी और वाम दलों की वजह से ओबीसी, ईबीसी और दलित वर्ग के भी कुछ वोट जरूर मिलना चाहिए, पर मिले 22 प्रतिशत। यानी आरजेडी के कोर वोटर में एनडीए ने सेंधमारी कर दी है।
आरजेडी मुस्लिम और यादव वोटों का अकेला दावेदार नहीं रहा। अगर इन दोनों जातियों के पूरे वोट आरजेडी को मिले होते उसका वोट शेयर कम से कम 30-32 प्रतिशत होना चाहिए। इसकी दो वजहें हैं। पप्पू के बारे में तेजस्वी का यह बयान कि आरजेडी उम्मीदवार को वोट नहीं दे सकते तो एनडीए प्रत्याशी को दे दें, यादवों के बिदकने का सबसे बड़ा कारण बना।
मुसलमान तो पहले से ही इस बात को लेकर बिदके हुए थे कि टिकट बंटवारे में अधिक आबादी के बावजूद उनके साथ नाइंसाफी हुई। आरजेडी ने 17 प्रतिशत मुसलमानों के लिए लोकसभा में सिर्फ दो ही सीटें दी थीं। टिकट बंटवारे में मुसलमानों की उपेक्षा और पप्पू यादव के मुद्दे पर यादवों एक तबके की नाराजगी आरजेडी को इशारा कर गई कि मुसलमान और यादव पर आरजेडी अपना एकाधिकार न समझे। मत प्रतिशत से भी पता चलता है कि उसे उसके समीकरण के पूरे वोट नहीं मिले हैं।
तेजस्वी यादव की लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ी सफलता यह है कि आरजेडी का वोट शेयर बढ़ा है। पिछली बार शून्य के मुकाबले इस बार चार सांसद भी हो गए। उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ कर इंडिया ब्लाक ने एनडीए से 10 सीटें भी छीन लीं।