Voter Adhikar Yatra: 35 साल का सियासी सूखा! राहुल की 16 दिन के वोटर अधिकार यात्रा से बिहार में कांग्रेस का लौटेगा स्वर्णकाल? जानिए सियासी रणनीति का हर पहलू
राहुल गांधी की यात्रा ने एक बात तो साफ़ कर दी है बिहार में चुनावी समर का माहौल गरमा चुका है और...

Voter Adhikar Yatra:बिहार की राजनीति आज एक ऐतिहासिक पड़ाव पर खड़ी है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ का पटना में समापन हो रहा है। मंच पर राहुल गांधी के साथ तेजस्वी यादव, झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन, सीपीआई-एमएल नेता दीपांकर भट्टाचार्य और वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी समेत महागठबंधन के तमाम बड़े चेहरे मौजूद रहेंगे। बैनर-पोस्टरों से पटना का माहौल पूरी तरह कांग्रेसमय हो गया है। सवाल यही है कि क्या 16 दिनों की यह यात्रा कांग्रेस को फिर से बिहार की सत्ता की राजनीति में प्रासंगिक बना पाएगी?
17 अगस्त को सासाराम से शुरू हुई यह यात्रा 23 ज़िलों से होते हुए पटना पहुंची। कुल 1300 किलोमीटर का सफर तय करते हुए राहुल गांधी ने भीड़ जुटाने और जनभावनाओं को झकझोरने में कोई कमी नहीं छोड़ी। कभी गमछा लहराकर, कभी मतदाता सूची से नाम कटे लोगों को मंच पर बुलाकर, तो कभी महिलाओं और युवाओं से सीधी बातचीत कर राहुल ने एक नई सियासी रणनीति अपनाई। इस दौरान कांग्रेसी कार्यकर्ता उमस और धूप में भी “वोट चोर गद्दी छोड़” का नारा लगाते दिखे।
यात्रा का नक्शा भी पूरी तरह रणनीतिक था। राहुल गांधी ने उन इलाकों से होकर रैली निकाली जहां बीजेपी-जेडीयू का मजबूत गढ़ माना जाता है। सीमांचल जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र, मिथिलांचल का ब्राह्मण वोटबैंक और भोजपुर का दलित-पिछड़ा समीकरण सबको साधने की कोशिश हुई। प्रियंका गांधी ने भी मिथिलांचल और सीमांचल में महिलाओं को साधने के लिए मैदान में उतरकर कांग्रेस को अतिरिक्त धार दी।
कांग्रेस का दावा है कि 65 लाख मतदाताओं के नाम सूची से हटा दिए गए हैं, जिनमें अधिकांश दलित, पिछड़े और गरीब तबके के लोग हैं। यही राहुल गांधी का बड़ा राजनीतिक हथियार बना। बीजेपी को सीधे-सीधे “वोट चोरी” के आरोपों पर कटघरे में खड़ा किया गया। वहीं, प्रियंका गांधी की जानकी मंदिर पूजा ने कांग्रेस को हिंदुत्व कार्ड का जवाब देने का अवसर दिया।
बिहार की सियासत में यह यात्रा सिर्फ कांग्रेस की वापसी की कवायद नहीं, बल्कि महागठबंधन की मजबूती का भी इम्तिहान है। राहुल गांधी जिस अंदाज़ में तेजस्वी यादव के साथ मंच साझा कर रहे हैं, उसने विपक्षी गठबंधन INDIA के भीतर तालमेल का संकेत दिया है। लेकिन असली सवाल यह है कि कांग्रेस अपनी सीटों की दावेदारी कितनी मज़बूती से रख पाएगी। कांग्रेस पहले ही 70 सीटों पर दावा कर चुकी है, जबकि वास्तविक ज़मीन पर उसका आधार कमजोर है।
इतिहास गवाह है कि 1990 के दशक के बाद से कांग्रेस बिहार में हाशिए पर चली गई। कभी 243 सीटों में से 133 पर काबिज रहने वाली कांग्रेस 2010 में 4 सीटों पर सिमट गई। 2015 में गठबंधन के सहारे 27 सीटें मिलीं, लेकिन 2020 में फिर सिर्फ 19 पर ही टिक पाई। वोट शेयर भी 10 फ़ीसदी तक नहीं पहुंच सका। लोकसभा में हालात और बदतर रहे – 2019 में सिर्फ 1 सीट, 2024 में भी सिर्फ 3 सीटें।
राहुल गांधी को यह समझ आ चुका है कि बिहार में कांग्रेस की जड़ें बेहद कमजोर हैं। इसलिए उन्होंने इस बार “सड़क से संसद तक” की रणनीति अपनाई। वोटर अधिकार यात्रा उसी बड़ी योजना का हिस्सा है। राहुल गांधी दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और ब्राह्मणों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन बड़ा सवाल यही है क्या यह जोश कांग्रेस को चुनावी जमीन पर वोट में तब्दील कर पाएगा? क्या कांग्रेस फिर से ‘पिछलग्गू’ वाली छवि से बाहर निकल पाएगी? या यह यात्रा सिर्फ महागठबंधन के भीतर अपनी सीटों की सौदेबाजी मजबूत करने का हथियार बनकर रह जाएगी?
बिहार की राजनीति के इतिहास में राहुल गांधी की यह यात्रा भले ही एक “सियासी तूफ़ान” साबित हो, लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस को सत्ता का स्वाद चखने के लिए लंबा संघर्ष करना होगा। फिलहाल, पटना की सड़कों पर राहुल गांधी की यात्रा ने एक बात तो साफ़ कर दी है बिहार में चुनावी समर का माहौल गरमा चुका है और हर पार्टी को अपनी रणनीति दुरुस्त करनी ही होगी।